ख़तों को खोलती दीमक का शुक्रिया वर्ना
तड़प रही थी लिफ़ाफ़ों में बे-ज़बानी पड़ी
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कैसे दुनिया का जाएज़ा किया जाए
एक ही वक़्त में प्यासे भी हैं सैराब भी हैं
कमी है कौन सी घर में दिखाने लग गए हैं
बाग़ से झूले उतर गए
ये कच्चे सेब चबाने में इतने सहल नहीं
ऐसी ग़ुर्बत को ख़ुदा ग़ारत करे
बहुत ग़नीमत हैं हम से मिलने कभी कभी के ये आने वाले
गिरते पेड़ों की ज़द में हैं हम लोग
महसूस कर लिया था भँवर की थकान को
ये ख़मोशी मिरी ख़मोशी है
तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझ को क़ुबूल
वैसे तो ईमान है मेरा उन बाँहों की गुंजाइश पर