इज़ाला हो गया ताख़ीर से निकलने का
गुज़र गई है सफ़र में मिरे क़याम की शाम
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ये कच्चे सेब चबाने में इतने सहल नहीं
हँसने-हँसाने पढ़ने-पढ़ाने की उम्र है
दोश देते रहे बे-कार ही तुग़्यानी को
ये ए'तिमाद भी मेरा दिया हुआ है तुम्हें
गिरते पेड़ों की ज़द में हैं हम लोग
बदल के देख चुकी है रेआया साहिब-ए-तख़्त
मैं जानता हूँ मुझे मुझ से माँगने वाले
कैसे दुनिया का जाएज़ा किया जाए
हाए वो भीगा रेशमी पैकर
बहुत ग़नीमत हैं हम से मिलने कभी कभी के ये आने वाले
किसी बदन की सयाहत निढाल करती है
ऐसी ग़ुर्बत को ख़ुदा ग़ारत करे