हम अपनी नेकी समझते तो हैं तुझे लेकिन
शुमार नामा-ए-आमाल में नहीं करते
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एक होने की क़स्में खाई जाएँ
ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किस की
ये जो रहते हैं बहुत मौज में शब भर हम लोग
दोश देते रहे बे-कार ही तुग़्यानी को
ख़ुद पर हराम समझा समर के हुसूल को
बहुत ग़नीमत हैं हम से मिलने कभी कभी के ये आने वाले
बदल के देख चुकी है रेआया साहिब-ए-तख़्त
हँसने-हँसाने पढ़ने-पढ़ाने की उम्र है
वैसे तो ईमान है मेरा उन बाँहों की गुंजाइश पर
कैसे दुनिया का जाएज़ा किया जाए
एक ही वक़्त में प्यासे भी हैं सैराब भी हैं