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कमी है कौन सी घर में दिखाने लग गए हैं - अज़हर फ़राग़ कविता - Darsaal

कमी है कौन सी घर में दिखाने लग गए हैं

कमी है कौन सी घर में दिखाने लग गए हैं

चराग़ और अँधेरा बढ़ाने लग गए हैं

ये ए'तिमाद भी मेरा दिया हुआ है तुझे

जो मेरे मशवरे बे-कार जाने लग गए हैं

मैं इतना वादा-फ़रामोश भी नहीं हूँ कि आप

मिरे लिबास पे गिर्हें लगाने लग गए हैं

वो पहले तन्हा ख़ज़ाने के ख़्वाब देखता था

अब अपने हाथ भी नक़्शे पुराने लग गए हैं

फ़ज़ा बदल गई अंदर से हम परिंदों की

जो बोल तक नहीं सकते थे गाने लग गए हैं

कहीं हमारा तलातुम थमे तो फ़ैसला हो

हम अपनी मौज में क्या क्या बहाने लग गए हैं

नहीं बईद कि जंगल में शाम पड़ जाए

हम एक पेड़ को रस्ता बताने लग गए हैं

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