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भँवर से ये जो मुझे बादबान खींचता है - अज़हर फ़राग़ कविता - Darsaal

भँवर से ये जो मुझे बादबान खींचता है

भँवर से ये जो मुझे बादबान खींचता है

ज़रूर कोई हवाओं के कान खींचता है

किसी बदन की सियाहत निढाल करती है

किसी के हाथ का तकिया थकान खींचता है

नशिस्त के तो तलबगार ही नहीं हम लोग

हमारे पाँव से क्यूँ पाएदान खींचता है

बदल के देख चुकी है रेआ'या साहिब-ए-तख़्त

जो सर क़लम नहीं करता ज़बान खींचता है

दिखा रहा है ख़रीदार बन के आज मुझे

जिसे लपेट के रक्खूँ वो थान खींचता है

चराग़ों में वो चराग़ इस लिए नुमायाँ है

हम ऐसे देखने वालों का ध्यान खींचता है

ये सारा झगड़ा तिरे इंहिमाक का ही तो है

समेटता है कोई दास्तान खींचता है

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