ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है
ज़रा सी बात पर इतने ख़फ़ा नहीं होते
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दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
घनेरी छाँव के सपने बहुत दिखाए गए
मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से
उसी ने सब से पहले हार मानी
कुछ अब के रस्म-ए-जहाँ के ख़िलाफ़ करना है
दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े
कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
ऐ शहर-ए-सितम छोड़ के जाते हुए लोगो
आज निकले याद की ज़म्बील से
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है