ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
इस आधे शख़्स को अपना बना के देख कभी
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दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
हम ने घर की सलामती के लिए
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
शब भर आँख में भीगा था
मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से
इस लिए मैं ने मुहाफ़िज़ नहीं रक्खे अपने
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ