उसी ने सब से पहले हार मानी
वही सब से दिलावर लग रहा था
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ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
शब भर आँख में भीगा था
जगह फूलों की रखते हैं घना साया बनाते हैं
ऐ शहर-ए-सितम छोड़ के जाते हुए लोगो
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
अपना जैसा भी हाल रक्खा है
हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
देर लगती है बहुत लौट के आते आते
दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं