उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
यही तन्हाई तो मेरे लिए सीढ़ी बनी है
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पत्ता हूँ आँधियों के मुक़ाबिल खड़ा हूँ मैं
शब भर आँख में भीगा था
रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह
क्या तेरा क्या मेरा ख़्वाब
तुम उस की बातों में न आना
हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ