शब भर आँख में भीगा था
पूरे दिन में सूखा ख़्वाब
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ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
अपना जैसा भी हाल रक्खा है
दरीचों में चराग़ों की कमी महसूस होती है
समझ में आ तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी
हवा को ज़िद कि उड़ाएगी धूल हर सूरत
आज निकले याद की ज़म्बील से
रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है