समझ में आ तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी
मगर इस के लिए मा'सूम होना लाज़मी है
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जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ
दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े
हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
घनेरी छाँव के सपने बहुत दिखाए गए
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
देर लगती है बहुत लौट के आते आते
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
मैं उस का नाम ले बैठा था इक दिन
तुम उस की बातों में न आना