मेरे हरे वजूद से पहचान उस की थी
बे-चेहरा हो गया है वो जब से झड़ा हूँ मैं
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कुछ अब के रस्म-ए-जहाँ के ख़िलाफ़ करना है
ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
इतना भी इंहिसार मिरे साए पर न कर
हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
शब भर आँख में भीगा था
निकल आया हूँ आगे उस जगह से
हम ने घर की सलामती के लिए
जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ
दर-ओ-दीवार से डर लग रहा था