मैं उस का नाम ले बैठा था इक दिन
ज़माने को बहाना चाहिए था
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घनेरी छाँव के सपने बहुत दिखाए गए
दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े
हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
देर लगती है बहुत लौट के आते आते
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
हवा को ज़िद कि उड़ाएगी धूल हर सूरत
रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
जगह फूलों की रखते हैं घना साया बनाते हैं
मेरे हरे वजूद से पहचान उस की थी
तुम उस की बातों में न आना
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है