मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से
वही लम्हा मिरा इंकार करना चाहता है
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बे-ख़्वाबी कब छुप सकती है काजल से भी
देर लगती है बहुत लौट के आते आते
शब भर आँख में भीगा था
ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
इतना भी इंहिसार मिरे साए पर न कर
जगह फूलों की रखते हैं घना साया बनाते हैं
उसी ने सब से पहले हार मानी
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है
निकल आया हूँ आगे उस जगह से