जो ज़िंदगी की माँग सजाते रहे सदा
क़िस्तों में बाँट कर उन्हें जीना दिया गया
Rahat Indori
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एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
जगह फूलों की रखते हैं घना साया बनाते हैं
निकल आया हूँ आगे उस जगह से
मैं उस का नाम ले बैठा था इक दिन
उसी ने सब से पहले हार मानी
ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
आज निकले याद की ज़म्बील से
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह