जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ
बस इतनी सी बात मिरे इम्कान में रख
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जो ज़िंदगी की माँग सजाते रहे सदा
हवा को ज़िद कि उड़ाएगी धूल हर सूरत
मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से
रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है
ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम
मेरे हरे वजूद से पहचान उस की थी
देर लगती है बहुत लौट के आते आते
हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
आज निकले याद की ज़म्बील से
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब