इस लिए मैं ने मुहाफ़िज़ नहीं रक्खे अपने
मिरे दुश्मन मिरे इस जिस्म से बाहर कम हैं
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हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
उसी ने सब से पहले हार मानी
आज निकले याद की ज़म्बील से
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
शब भर आँख में भीगा था
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह
जो ज़िंदगी की माँग सजाते रहे सदा
हम ने घर की सलामती के लिए
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है