हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
वो मो'जिज़े जो कभी रूनुमा नहीं होते
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कुछ अब के रस्म-ए-जहाँ के ख़िलाफ़ करना है
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
वो शब के साए में फ़स्ल-ए-नशात काटते हैं
जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ
कल परदेस में याद आएगी ध्यान में रख
मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से
इतना भी इंहिसार मिरे साए पर न कर
दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े
कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
जगह फूलों की रखते हैं घना साया बनाते हैं
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
अपना जैसा भी हाल रक्खा है