एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
आज का मौसम गुज़िश्ता रोज़ से अच्छा तो है
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पत्ता हूँ आँधियों के मुक़ाबिल खड़ा हूँ मैं
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
समझ में आ तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी
आज निकले याद की ज़म्बील से
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
हम ने घर की सलामती के लिए
उसी ने सब से पहले हार मानी
ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है
ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है