देर लगती है बहुत लौट के आते आते
और वो इतने में हमें भूल चुका होता है
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कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
पत्ता हूँ आँधियों के मुक़ाबिल खड़ा हूँ मैं
समझ में आ तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह
वो शब के साए में फ़स्ल-ए-नशात काटते हैं
हम ने घर की सलामती के लिए
दरीचों में चराग़ों की कमी महसूस होती है
क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है
उसी ने सब से पहले हार मानी