दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
अपनी आँखें गईं या सितारे गए
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Faiz Ahmad Faiz
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जो ज़िंदगी की माँग सजाते रहे सदा
ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम
क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
पत्ता हूँ आँधियों के मुक़ाबिल खड़ा हूँ मैं
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह
दरीचों में चराग़ों की कमी महसूस होती है
कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
वो शब के साए में फ़स्ल-ए-नशात काटते हैं
ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
निकल आया हूँ आगे उस जगह से
ऐ शहर-ए-सितम छोड़ के जाते हुए लोगो