ऐ शहर-ए-सितम छोड़ के जाते हुए लोगो
अब राह में कोई भी मदीना नहीं आता
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
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Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
Ahmad Faraz
Habib Jalib
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मेरे हरे वजूद से पहचान उस की थी
आज निकले याद की ज़म्बील से
ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
मैं उस का नाम ले बैठा था इक दिन
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
घनेरी छाँव के सपने बहुत दिखाए गए
जो ज़िंदगी की माँग सजाते रहे सदा
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है