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दर-ओ-दीवार से डर लग रहा था - अज़हर अदीब कविता - Darsaal

दर-ओ-दीवार से डर लग रहा था

दर-ओ-दीवार से डर लग रहा था

तिरा घर भी मिरा घर लग रहा था

उसी ने सब से पहले हार मानी

वही सब से दिलावर लग रहा था

जिसे महताब कहता था ज़माना

तिरे कूचे का पत्थर लग रहा था

जगह अब छोड़ दूँ बेटे की ख़ातिर

वो कल मेरे बराबर लग रहा था

ख़बर क्या थी बगूलों का है मस्कन

परे से तो समुंदर लग रहा था

छलकती थी ग़ज़ल हर ज़ाविए से

तिरा पैकर सुखनवर लग रहा था

ठहरता कौन इक मेरे अलावा

वहाँ तो दाव पर सर लग रहा था

तिरी यादों की रुत आई हुई थी

ये सहरा मोर का पर लग रहा था

मिरे दीवार-ओ-दर भी काग़ज़ी थे

घटा में भी समुंदर लग रहा था

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