हाथ पत्थर से हो गए मानूस
शौक़ कूज़ा-गरी का क्या कीजे
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अपने वीराने का नुक़सान नहीं चाहता मैं
देख क़िंदील रुख़-ए-यार की जानिब मत देख
इधर महसूस होती है कमी उस की
मुझ को इतना तो यक़ीं है मैं हूँ
ऐसे पामाल कि पहचान में आते ही नहीं
फ़ज़ा-ए-नीलगूँ का ध्यान छोड़ दे
मिरी कहानी तिरी कहानी से मुख़्तलिफ़ है
पंछियों की किसी क़तार के साथ
ज़िंदगी कैसे लगी दीवार से
क़दम क़दम निशान ढूँढता रहा
जब तिरे ख़्वाब से बेदार हुआ करते थे