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मुझ को इतना तो यक़ीं है मैं हूँ - अज़हर अब्बास कविता - Darsaal

मुझ को इतना तो यक़ीं है मैं हूँ

मुझ को इतना तो यक़ीं है मैं हूँ

और जब तक ये ज़मीं है मैं हूँ

इस से आगे मैं कहाँ तक सोचूँ

आदमी जितना ज़हीं है मैं हूँ

ये जिसे साथ लिए फिरता हूँ

ये कोई और नहीं है मैं हूँ

एक छोटा सा महल सपनों का

जिस में इक माह-जबीं है मैं हूँ

घर के बाहर है कोई मुझ जैसा

और जो घर में मकीं है मैं हूँ

मेरे मलबे पे खड़े हैं सब लोग

देखता कोई नहीं है मैं हूँ

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