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देख क़िंदील रुख़-ए-यार की जानिब मत देख - अज़हर अब्बास कविता - Darsaal

देख क़िंदील रुख़-ए-यार की जानिब मत देख

देख क़िंदील रुख़-ए-यार की जानिब मत देख

तेज़ तलवार है तलवार की जानिब मत देख

बोल कितनी है तिरे सामने क़ीमत मेरी

छोड़ बाज़ार को बाज़ार की जानिब मत देख

देखना है तो मुझे देख कि मैं कैसा हूँ

मेरे उजड़े हुए घर-बार की जानिब मत देख

और बढ़ जाएगी तन्हाई तुझे क्या मालूम

ऐसी तन्हाई में दीवार की जानिब मत देख

आगे निकला है तो फिर आगे निकलता चला जा

पीछे हटते हुए सालार की जानिब मत देख

तू मिरे सामने आया है तो फिर देख मुझे

मेरी टूटी हुई तलवार की जानिब मत देख

तू कहानी के बदलते हुए मंज़र को समझ

ख़ून रोते हुए किरदार की जानिब मत देख

तेरा दिल ही न कहीं काट के रख दे 'अज़हर'

आँख से गिरती हुई धार की जानिब मत देख

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