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वो शोख़ दिल-ओ-जाँ की तमन्ना तो न निकला - अज़ीम कुरेशी कविता - Darsaal

वो शोख़ दिल-ओ-जाँ की तमन्ना तो न निकला

वो शोख़ दिल-ओ-जाँ की तमन्ना तो न निकला

शो'ला तो न निकला वो शरारा तो न निकला

महसूस किया दर्द के हर रूप में उस को

आवाज़ का अफ़्सूँ कभी झूटा तो न निकला

महरूमी-ए-जावेद ने दोनों ही को मारा

ये राज़-ए-मोहब्बत कोई गहरा तो न निकला

ये दिल का ख़राबा ही तिरी राहगुज़र थी

काबा तो न निकला वो कलीसा तो न निकला

वो मेरे मुक़द्दर की स्याही था सरापा

नूर-ए-शब-ए-महताब सुनहरा तो न निकला

हम भी किसी शीरीं के लिए ख़ाना-बदर थे

फ़रहाद रह-ए-इश्क़ में तन्हा तो न निकला

इस में तिरी ख़ल्वत का हर इक रंग है पाया

ये चाँद सर-ए-चर्ख़ अकेला तो न निकला

पहले से बढ़ी और ग़म-ए-इश्क़ की तल्ख़ी

तू भी मिरे दम-साज़ मसीहा तो न निकला

अंदाज़-ए-बयाँ तेरा 'अज़ीम' और ही कुछ है

देखे सभी फ़नकार प तुझ सा तो न निकला

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