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सुरूर-ए-इश्क़ की मस्ती कहाँ है सब के लिए - अज़ीम कुरेशी कविता - Darsaal

सुरूर-ए-इश्क़ की मस्ती कहाँ है सब के लिए

सुरूर-ए-इश्क़ की मस्ती कहाँ है सब के लिए

वो मुझ में जज़्ब हुआ आ के एक शब के लिए

वो एक कर्ब-ए-हसीं जो मुझे हुआ है अता

न तेरे रुख़ के लिए है न तेरे लब के लिए

कभी तो उल्टे सर-ए-आम वो नक़ाब अपनी

तरस रहे हैं सभी बादा-ए-इनब के लिए

तिरे विसाल की कब आरज़ू रही दिल को

कि हम ने चाहा तुझे शौक़-ए-बे-सबब के लिए

दिल-ए-हज़ीं कि दो-आलम नहीं बहा जिस की

लुटाया मैं ने इसे तेरी एक छब के लिए

वही किरन जो सर-ए-चर्ख़ रह गई तन्हा

वो सोग बन गई तारों के हर तरब के लिए

'अज़ीम' इश्क़-ए-शह-ए-दो-सरा बसा दिल में

वही अजम के लिए है वही अरब के लिए

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