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इश्क़ अपना अजब तमाशा है - अज़ीम कुरेशी कविता - Darsaal

इश्क़ अपना अजब तमाशा है

इश्क़ अपना अजब तमाशा है

इक जहाँ है कि हम को तकता है

जैसे बे-माँ के तिफ़्ल हो ये दिल

आज कुछ इस तरह से सहमा है

तुझ को पा कर भी शाद कब था दिल

तुझ को खो कर भी हाथ मलता है

आओ उस देस में चलें जिस जा

इश्क़ तपता है रूप जलता है

एक ही रूप के हयूले हैं

गाह 'सैफ़ू' है गाह 'मीरा' है

कितना नाज़ुक है आबगीना-ए-दिल

ग़ुंचा चटके तो और दुखता है

बे-ख़तर है 'अज़ीम' हर ग़म से

उस पे आल-ए-नबी का साया है

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