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लाई न सबा बू-ए-चमन अब के बरस भी - अज़ीम मुर्तज़ा कविता - Darsaal

लाई न सबा बू-ए-चमन अब के बरस भी

लाई न सबा बू-ए-चमन अब के बरस भी

कुछ सोच के ख़ामोश हैं यारान-ए-क़फ़स भी

दस्तूर-ए-मोहब्बत ही नहीं जाँ से गुज़रना

कर लेते हैं ये काम कभी अहल-ए-हवस भी

नाज़ुक हैं मराहिल सफ़र-ए-मंज़िल-ए-ग़म के

इस राह में खो जाती है आवाज़-ए-जरस भी

आज़ाद भी हो जाएँगे आख़िर तिरे क़ैदी

इक रोज़ बिखर जाएगी ज़ंजीर-ए-नफ़स भी

अंगुश्त-नुमा शैख़-ओ-बरहमन के चलन पर

मस्जिद के मनारे भी हैं मंदिर के कलस भी

दीवाना अभी तक है उसी दुश्मन-ए-जाँ का

आता है दिल-ए-ज़ार पे ग़ुस्सा भी तरस भी

कुछ आप का ग़म कुछ ग़म-ए-जाँ कुछ ग़म-ए-दुनिया

दामन में मिरे फूल भी हैं ख़ार भी ख़स भी

चुप रह के भी मुमकिन न रहा दर्द छुपाना

इक शोला-ए-आवाज़ है अब मौज-ए-नफ़स भी

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