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फ़ुग़ाँ से तर्क-ए-फ़ुग़ाँ तक हज़ार तिश्ना-लबी है - अज़ीम मुर्तज़ा कविता - Darsaal

फ़ुग़ाँ से तर्क-ए-फ़ुग़ाँ तक हज़ार तिश्ना-लबी है

फ़ुग़ाँ से तर्क-ए-फ़ुग़ाँ तक हज़ार तिश्ना-लबी है

सुकूत भी तो इक अंदाज़-ए-मुद्दआ'-तलबी है

बहुत दिनों में हुआ अहल-ए-आरज़ू को मयस्सर

वो क़ुर्ब-ए-ख़ास जहाँ तेरी याद बे-अदबी है

ख़याल-ए-तर्क-ए-तअल्लुक़ जुनून-ए-क़त-ए-मरासिम

तमाम सई-ए-तलब है तमाम तिश्ना-लबी है

सुकूत-ए-शो'ला-ए-गुल है कि तेरा पैकर-ए-रंगीं

वो आँच आती है जैसे बदन में आग दबी है

उसी के फ़ैज़ से आशोब-ए-आगही है गवारा

निगाह-ए-नाज़ है या मौज-ए-बादा-ए-उनबी है

न जाने किस तरह तय होगा तिश्नगान-ए-करम से

वो मरहला कि जहाँ अर्ज़-ए-हाल बे-अदबी है

फ़ज़ा तो नग़्मा-ए-गुल से भी चौंक उठी है लेकिन

तिरी शगुफ़्ता-लबी फिर वही शगुफ़्ता-लबी है

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