यक़ीं बनाता है कोई गुमाँ बनाता है
यक़ीं बनाता है कोई गुमाँ बनाता है
जो आदमी है अलग दास्ताँ बनाता है
शिकस्त करता है ज़ंजीर-ए-ख़ाना-ओ-मेहराब
और एक हल्क़ा-ए-आवारगाँ बनाता है
गिल-ए-वजूद से करता है कस्ब-ए-कूज़ा-ए-जाँ
ख़ुमार-ए-सूद में लेकिन ज़ियाँ बनाता है
कमाल बे-ख़बरी है अगर बहम हो जाए
मगर ये ज़ीस्त को आसाँ कहाँ बनाता है
पस-ए-चराग़ इरादा कोई तो है 'आज़र'
जो मेरे शो'ला-ए-दिल को धुआँ बनाता है
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