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दिल को रहीन-ए-लज़्ज़त-ए-दरमाँ न कर सके - आज़म चिश्ती कविता - Darsaal

दिल को रहीन-ए-लज़्ज़त-ए-दरमाँ न कर सके

दिल को रहीन-ए-लज़्ज़त-ए-दरमाँ न कर सके

हम उन से भी शिकायत-ए-हिज्राँ न कर सके

इस तरह फूँक मेरा गुलिस्तान-ए-आरज़ू

फिर कोई तेरे बा'द इसे वीराँ न कर सके

महँगी थी इस क़दर तिरे जल्वों की रौशनी

हम अपनी एक शाम फ़िरोज़ाँ न कर सके

बिछड़े रहे तो और भी रुस्वा करेंगे लोग

तुम भी इलाज-ए-गर्दिश-ए-दौराँ न कर सके

दिल उन के हाथ से भी गया हम से भी गया

शायद वो पास-ए-ख़ातिर-ए-मेहमाँ न कर सके

उन पर भी आश्कार हो क्यूँ अपने दिल का हाल

हम इस मता-ए-दर्द को अर्ज़ां न कर सके

'आज़म' हज़ार बार लुटे राह-ए-इश्क़ में

लेकिन कभी शिकायत-ए-दौराँ न कर सके

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