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ख़ुद-सताई से न हम बाज़ अना से आए - आज़ाद हुसैन आज़ाद कविता - Darsaal

ख़ुद-सताई से न हम बाज़ अना से आए

ख़ुद-सताई से न हम बाज़ अना से आए

गो तिरे शहर में जा कर के भी प्यासे आए

इस जवानी में भी इल्ज़ाम से डरना हैरत

कौन चेहरे पे नहीं कील मुहासे आए

उस ने इक ख़ास तनासुब से मोहब्बत बाँटी

मेरे हिस्से में हमेशा ही दिलासे आए

बात औसाफ़ की है नम की नहीं है भाई

लोग बे-अंत समुंदर से भी प्यासे आए

ढूँढता है कोई मुझ जैसा मुझे गिर्द-ओ-नवाह

इक सदा मेरे तआ'क़ुब में सदा से आए

मैं ब-सद-शौक़ गिरफ़्तार‌‌‌‌-ए-रह-ए-इश्क़ हुआ

वर्ना कुछ लोग यहाँ अपनी ख़ता से आए

सिर्फ़ तक़लीद से ही क़ैस नहीं बन सकते

या'नी इस इश्क़ का करना भी अता से आए

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