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गुंग हैं सारी ज़मीनें आसमाँ हैरत-ज़दा - आज़ाद हुसैन आज़ाद कविता - Darsaal

गुंग हैं सारी ज़मीनें आसमाँ हैरत-ज़दा

गुंग हैं सारी ज़मीनें आसमाँ हैरत-ज़दा

रफ़्तगाँ शश्दर सभी आइंदगाँ हैरत-ज़दा

चूस लेती है ज़मीं पानी जहाँ हों नफ़रतें

ख़ुश्क होती नहर पे मत हों किसाँ हैरत-ज़दा

कौन घर का है ये धोवन किस की है यख़-बस्तगी

बर्फ़ होती इस नदी का सब धुआँ हैरत-ज़दा

इस तहय्युर-ख़ेज़ शहर-ए-नूर की हर शय अजब

हर यक़ीं हैरत-ज़दा हर-इक गुमाँ हैरत-ज़दा

दाख़िले पर तख़्तियाँ हैं जिन पे कुंदा नाम हैं

कौन कैसे किस तरह और है कहाँ हैरत-ज़दा

संग-ए-मरमर से बना जंगल जहान-ए-आरज़ू

दफ़्तरी लहजा लिए मैं इक जवाँ हैरत-ज़दा

किस तरह का दर्स मुझ को दे रहा है आफ़्ताब

सहन-मकतब में कहीं है कहकशाँ हैरत-ज़दा

ज़िक्र था मलफ़ूफ़ कुन का आसमाँ की बात थी

सुन रहा था शहर सारा दास्ताँ हैरत-ज़दा

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