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तेरे क़दमों की आहट को तरसा हूँ - आज़ाद गुलाटी कविता - Darsaal

तेरे क़दमों की आहट को तरसा हूँ

तेरे क़दमों की आहट को तरसा हूँ

मैं भी तेरा भूला हुआ इक रस्ता हूँ

बीते लम्हों के झोंके जब आते हैं

पल दो पल को मैं फिर से खिल उठता हूँ

मुझ से मुज़्दा नई रुतों का पाओगे

यारो मैं इस पेड़ का अंतिम पत्ता हूँ

शायद तुम भी अब न मुझे पहचान सको

अब मैं ख़ुद को अपने जैसा लगता हूँ

आज के काले साए कल तक फैलेंगे

मेरे बच्चो मैं इस बात से डरता हूँ

तुम भी कैसे ढूँड सकोगे अब मुझ को

मैं ख़ुद अपने-आप से ओझल रहता हूँ

सायों की ख़्वाहिश ने मुझे जलाया है

अब मैं इन के नाम से तपने लगता हूँ

मुझ से मिल कर किस को यक़ीन अब आएगा

मैं भी तेरा टूटा हुआ इक रिश्ता हूँ

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