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लम्हा लम्हा इक नई सई-ए-बक़ा करती हुई - आज़ाद गुलाटी कविता - Darsaal

लम्हा लम्हा इक नई सई-ए-बक़ा करती हुई

लम्हा लम्हा इक नई सई-ए-बक़ा करती हुई

कट रही है ज़िंदगी ख़ुद को फ़ना करती हुई

तेरी चुप है या मिरे अंदर मचा कोहराम है

कोई शय तो है ज़बाँ को बे-नवा करती हुई

अपने अंदर रेज़ा रेज़ा टूट कर बिखरा हूँ मैं

है ये क्या शय चोर दिल का आइना करती हुई

किश्त-ए-जाँ से दिन को कटती है नए ज़ख़्मों की फ़स्ल

रात आती है इन्हें फिर से हरा करती हुई

मेरे होने से न होने का सबब पैदा हुआ

मुझ को हस्ती ही थी ख़ुद मुझ से जुदा करती हुई

मौत तो 'आज़ाद' है आज़ादियों का इक जहाँ

ज़िंदगी है हर नफ़स ख़ुद को रिहा करती हुई

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