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ख़ुद हमीं को राहतों के कैफ़ का चसका न था - आज़ाद गुलाटी कविता - Darsaal

ख़ुद हमीं को राहतों के कैफ़ का चसका न था

ख़ुद हमीं को राहतों के कैफ़ का चसका न था

ज़िंदगी का ज़हर वर्ना इस क़दर कड़वा न था

उस ने तन्हाई से घबरा कर पुकारा तो नहीं

इस से पहले तो मिरा दिल इस तरह धड़का न था

हाए वो आलम कि उन की बज़्म में भी बैठ कर

मैं यही सोचा किया मैं तो कभी तन्हा न था

उस के अपने हाथ रुख़्सारों को सहलाने लगे

गो ब-ज़ाहिर मेरी बाबत उस ने कुछ सोचा न था

हर तरफ़ खिलती रहीं कलियाँ नसीम-ए-सुब्ह से

अपनी क़िस्मत में सबा का एक भी झोंका न था

ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!! आ दो घड़ी मिल कर रहें

तुझ से मेरा उम्र-भर का तो कोई झगड़ा न था

सोचते हैं अब उसे 'आज़ाद' हम क्या नाम दें

उम्र का वो दौर दिल में जब कोई सौदा न था

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