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कर्ब हरे मौसम का तब तक सहना पड़ता है - आज़ाद गुलाटी कविता - Darsaal

कर्ब हरे मौसम का तब तक सहना पड़ता है

कर्ब हरे मौसम का तब तक सहना पड़ता है

पतझड़ में तो पात को आख़िर झड़ना पड़ता है

कब तक औरों के साँचे में ढलते जाएँगे

किसी जगह तो हम को आख़िर उड़ना पड़ता है

सिर्फ़ अँधेरे ही से दिए की जंग नहीं होती

तेज़ हवाओं से भी इस को लड़ना पड़ता है

सही-सलामत आगे बढ़ते रहने की ख़ातिर

कभी कभी तो ख़ुद भी पीछे हटना पड़ता है

शेर कहें तो अक़्ल-ओ-जुनूँ की सरहद पर रुक कर

लफ़्ज़ों में जज़्बों के नगों को जड़ना पड़ता है

जीवन जीना इतना भी आसान नहीं 'आज़ाद'

साँस साँस में रेज़ा रेज़ा कटना पड़ता है

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