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हमारी आँख में ठहरा हुआ समुंदर था - आज़ाद गुलाटी कविता - Darsaal

हमारी आँख में ठहरा हुआ समुंदर था

हमारी आँख में ठहरा हुआ समुंदर था

मगर वो क्या था जो सहरा-ए-दिल के अंदर था

उसी को ज़ुल्फ़ में टाँके ये आरज़ू क्यूँ-कर

वो फूल जो कि तिरी दस्तरस से बाहर था

वो वक़्त आएगा जब ख़ुद तुम्ही ये सोचोगी

मिला न होता अगर तुझ से मैं तो बेहतर था

हर एक अंग लबालब भरा हो जैसे जाम

तुम्हारा जिस्म था या मय-कदे का मंज़र था

उसे भी जाते हुए तुम ने मुझ से छीन लिया

तुम्हारा ग़म तो मिरी आरज़ू का ज़ेवर था

बहुत क़रीब से देखा था उस को ऐ 'आज़ाद'

वो आरज़ू का मिरी इक हसीन पैकर था

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