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ज़ब्त करना न कभी ज़ब्त में वहशत करना - अय्यूब ख़ावर कविता - Darsaal

ज़ब्त करना न कभी ज़ब्त में वहशत करना

ज़ब्त करना न कभी ज़ब्त में वहशत करना

इतना आसाँ भी नहीं तुझ से मोहब्बत करना

तुझ से कहने की कोई बात न करना तुझ से

कुंज-ए-तन्हाई में बस ख़ुद को अलामत करना

इक बगूले की तरह ढूँडते फिरना तुझ को

रू-ब-रू हो तो न शिकवा न शिकायत करना

हम गदायान-ए-वफ़ा जानते हैं ऐ दर-ए-हुस्न

उम्र भर कार-ए-नदामत पे नदामत करना

ऐ असीर-ए-क़फ़स सहर-ए-अना देख आ कर

कितना मुश्किल है तिरे शहर से हिजरत करना

फिर वही ख़ार-ए-मुग़ीलाँ वही वीराना है

ऐ कफ़-ए-पा-ए-जुनूँ फिर वही ज़हमत करना

सूरत माह-ए-मुनीर अब के सर-ए-बाम आ कर

हम ग़रीबों को भी कुछ रंज इनायत करना

जमा करना तह-ए-मिज़्गाँ तुझे क़तरा क़तरा

रात भर फिर तुझे टुकड़ों में रिवायत करना

काम ऐसा कोई मुश्किल तो नहीं है 'ख़ावर'

मगर इक दस्त-ए-हिना-रंग पे बैअत करना

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