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उश्शाक़ बहुत हैं तिरे बीमार बहुत हैं - अय्यूब ख़ावर कविता - Darsaal

उश्शाक़ बहुत हैं तिरे बीमार बहुत हैं

उश्शाक़ बहुत हैं तिरे बीमार बहुत हैं

तुझ हुस्न-ए-दिल-आराम के हक़दार बहुत हैं

ऐ संग-सिफ़त आ के सर-ए-बाम ज़रा देख

इक हम ही नहीं तेरे तलबगार बहुत हैं

बेचैन किए रखती है हर आन ये दिल को

कम-बख़्त मोहब्बत के भी आज़ार बहुत हैं

मिट्टी के खिलौने हैं तिरे हाथ में हम लोग

और गिर के बिखर जाने के आसार बहुत हैं

लिक्खें तो कोई मिस्रा-ए-तर लिख नहीं पाते

और 'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के तरफ़-दार बहुत हैं

ऐ रब्ब-ए-हुनर चश्म-ए-इनायात इधर भी

हर-चंद कि हम तेरे गुनहगार बहुत हैं

'ख़ावर' उसे पा लेने में खो देने का डर है

अंदेशा ओ हसरत के मियाँ ख़ार बहुत हैं

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