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सोचों में लहू उछालते हैं - अय्यूब ख़ावर कविता - Darsaal

सोचों में लहू उछालते हैं

सोचों में लहू उछालते हैं

हम अपनी तहों में झाँकते हैं

दुनिया की हज़ार नेमतों में

हम एक तुझी को जानते हैं

आँखों से दुखों के रंग आख़िर

सारस की उड़ान उड़ गए हैं

सावन की तरह हमें भिगो कर

बादल की तरह गुज़र गए हैं

यूँ भी है कि प्यार के नशे में

कुछ सोच के लोग रो पड़े हैं

वो दुख तो ख़ुशी के बाब में थे

ये दुख जो तुलू हो रहे हैं

जो कुछ भी है दिल के आइने में

सब तेरी नज़र के ज़ाविए हैं

बहते हुए दो बदन समुंदर

होंटों के किनारे आ मिले हैं

कुछ भी तो नहीं है पास 'ख़ावर'

बस एक अना है रत-जगे हैं

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