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न कोई दिन न कोई रात इंतिज़ार की है - अय्यूब ख़ावर कविता - Darsaal

न कोई दिन न कोई रात इंतिज़ार की है

न कोई दिन न कोई रात इंतिज़ार की है

कि ये जुदाई भरोसे की ए'तिबार की है

जो ख़ाक उड़ी है मिरे दुख समेट लेंगे उसे

जो बिछ गई सर-ए-मंज़र वो रहगुज़ार की है

वो वस्ल हो कि खुले आइने पे अक्स-ए-जमाल

ये आरज़ू है मगर बात इख़्तियार की है

इसी का नाम है वहशत-सरा-ए-जाँ में चराग़

उसी के लम्स में धड़कन दिल-ए-फ़िगार की है

ये कौन था जो सर-ए-बाम ख़ुद को भूल गया

ये किस का रक़्स था, गर्दिश ये किस ग़ुबार की है

ये कौन मुझ में हरे मौसमों उतरता है

ये कैसे रंग हैं ख़ुशबू ये किस दयार की है

बुझाने वाले ने 'ख़ावर' बुझा दिया है चराग़

यही ठहरने की साअत यही मज़ार की है

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