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लहरों में बदन उछालते हैं - अय्यूब ख़ावर कविता - Darsaal

लहरों में बदन उछालते हैं

लहरों में बदन उछालते हैं

आओ कि फ़लक में डूबते हैं

दुनिया की हज़ार ने'मतों में

हम एक तुझी को जानते हैं

आँखों से दुखों के सारे मंज़र

सारस की उड़ान उड़ गए हैं

हँसते हुए बे-ग़ुबार चेहरे

बे-वज्ह उदास हो रहे हैं

कुछ दुख तो ख़ुशी के बाब में थे

बाक़ी भी निशान पा चुके हैं

यूँ भी है कि प्यार के नशे में

कुछ सोच कि लोग रो पड़े हैं

सावन की तरह से लोग आए

ख़ुश्बू की तरह से गुज़र गए हैं

बहते हुए दो बदन समुंदर

होंटों के किनारे आ लगे हैं

आँखों में ये कर्बला के मंज़र

अपनी ही अना के रत-जगे हैं

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