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किन आवाज़ों का सन्नाटा मुझ में है - अय्यूब ख़ावर कविता - Darsaal

किन आवाज़ों का सन्नाटा मुझ में है

किन आवाज़ों का सन्नाटा मुझ में है

जो कुछ भी तुझ में है या मुझ में है

तेरी आँखें मेरी आँखें लगती हैं

सोच रहा हूँ कौन ये तुझ सा मुझ में है

हर मौसम ने तेरे दर पर दस्तक दी

आख़िरी दस्तक देने वाला मुझ में है

दिल की मिट्टी लहू बना कर छोड़ेगा

ये जो काँच का चलता टुकड़ा मुझ में है

जिस दरिया का एक किनारा वो आँखें

उस दरिया का एक किनारा मुझ में है

खिलता है वो फूल अभी इक खिड़की में

जिस को आख़िर-कार महकना मुझ में है

जिन आँखों की झीलें कँवल खिलाती हैं

रंग सुनहरा उन झीलों का मुझ में है

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