हवा के रुख़ पे रह-ए-ए'तिबार में रक्खा
हवा के रुख़ पे रह-ए-ए'तिबार में रक्खा
बस इक चराग़ कू-ए-इंतिज़ार में रक्खा
अजब तिलिस्म-ए-तग़ाफ़ुल था जिस ने देर तलक
मिरी अना को भी कुंज-ए-ख़ुमार में रक्खा
उड़ा दिए ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-आरज़ू सर-ए-राह
बस एक दिल को तिरे इख़्तियार में रक्खा
न जाने कौन घड़ी थी कि अपने हाथों से
उठा के शीशा-ए-जाँ इस ग़ुबार में रक्खा
ये किस ने मुस्लि-ए-मह-ओ-महर अपनी अपनी जगह
विसाल ओ हिज्र को उन के मदार में रक्खा
लहू में डोलती तंहाई की तरह 'ख़ावर'
तिरा ख़याल दिल-ए-बे-क़रार में रक्खा
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