इक तुम कि हो बे-ख़बर सदा के
इक तुम कि हो बे-ख़बर सदा के
मौसम है कि हाथ मल रहा है
ज़ाहिर में सबा-ख़िराम ख़ुशबू
बातिन में निफ़ाक़ पल रहा है
ऐ लज़्ज़त-ए-हिज्र याद रखना
ये लम्हा-ए-वस्ल खल रहा है
आईने में अक्स ढल रहा है
पानी में चराग़ जल रहा है
आँखों में ग़ुबार मंज़िलों का
क़दमों में सराब चल रहा है
जैसे कोई याद आ रहा हो
आँखों में नशा पिघल रहा है
हम उस के मिज़ाज-आश्ना हैं
जो बात का रुख़ बदल रहा है
(806) Peoples Rate This