चराग़-ए-क़ुर्ब की लौ से पिघल गया वो भी
चराग़-ए-क़ुर्ब की लौ से पिघल गया वो भी
अज़ाब-ए-हिज्र से मैं क्या, निकल गया वो भी
रिदा-ए-अब्र-ए-जमाल-ए-हिजाब क्या सरकी
कि अंग अंग सितारों में ढल गया वो भी
दयार-ए-ख़्वाब में इक शख़्स हम-क़दम था मगर
पड़ा जो वक़्त तो रस्ता बदल गया वो भी
ये उस की याद का एजाज़ था कि अब के बरस
जो वक़्त हम पे कड़ा था सो टल गया वो भी
अजब तिलिस्म-ए-नुमू था वफ़ा की मिट्टी में
हवा-ए-हिज्र चली, फूल फल गया वो भी
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