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बुझने लगे नज़र तो फिर उस पार देखना - अय्यूब ख़ावर कविता - Darsaal

बुझने लगे नज़र तो फिर उस पार देखना

बुझने लगे नज़र तो फिर उस पार देखना

दरिया चढ़े तो नाव की रफ़्तार देखना

इस आगही के आईना-ए-ख़ुद-मिसाल में

ख़ुद अपनी ज़ात को सर-ए-पैकार देखना

आँखों से रत-जगों की हरारत नहीं गई

ऐ याद-ए-यार तिश्ना-ए-आज़ार देखना

होंटों पे आ के जम सी गई ख़्वाहिश-ए-विसाल

इस अन-कही पे लज़्ज़त-ए-इंकार देखना

हम वो वफ़ा-परस्त तुझे देखने के ब'अद

अपनी तरफ़ भी सूरत-ए-दीवार देखना

शाख़ ओ समर तो मुंसिफ़ ओ क़ातिल के हो गए

अब किस के सर पे गिरती है तलवार देखना

यूँ है कि जब बिछड़ने लगें दिल से धड़कनें

तब उस गली में सुब्ह के आसार देखना

अब ये दिल ओ निगाह के बस में नहीं रहा

हर आईने में अक्स-ए-रुख़-ए-यार देखना

साहिल को मौज ले गई और उस को बादबाँ

ख़ावर अब इस के ब'अद न उस पार देखना

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